सड़क के दोनों तरफ़ खड़ी तेंदू, टीक और साल के पेड़ों की लंबी क़तारें यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि अब हम ‘सतपुड़ा के घने जंगलों’ में प्रवेश कर चुके हैं. दिल्ली से तक़रीबन हज़ार किलोमीटर दूर, मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल ज़िले अलिराजपुर में जैसे-जैसे गाड़ी ज़िला मुख्यालय से ककराना बस्ती की ओर बढ़ने लगती है, सायं-सायं करती पहाड़ी हवा में महुए की गंध घुलने लगती है. हर किलोमीटर के साथ ‘शहरी’ सभ्यता पीछे छूटती जा रही है. इसका पहला संकेत मिलता है मोबाईल फ़ोन के सिग्नल ग़ायब होने से.
ककराना के आख़िरी बाज़ार के अंतिम छोर से आगे सिर्फ़ पानी ही पानी नज़र आता है. मध्य प्रदेश की जीवनदायनी नदी ‘नर्मदा’ का पानी. गंगा-यमुना से इतर अपने आक्रामक बहाव के कारण देश की अनेक नदियों के बीच अपनी पहचान बनाने वाली नर्मदा का पानी.
इस नदी को मध्य प्रदेश के साथ-साथ महाराष्ट्र और गुजरात में भी जीवनदायनी ‘माँ नर्मदा’ या ‘माँ रेवा’ के तौर पर पूजा जाता है. लेकिन अगर आप इन तीन राज्यों के वासी नहीं भी हैं, तब भी संभव है कि शायद कभी ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के बारे में कोई अखबारी ख़बर पढ़ते हुए या देश के प्रतिष्ठित म्यूज़िक बैंड ‘इंडियन ओशन’ के प्रसिद्ध गीत ‘माँ रेवा, थारो पानी निर्मल..खल खल बहतो जाय रे’ को सुनते हुए आपका परिचय नर्मदा से हुआ हो.
नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर डैम को अलग-अलग समय पर अलग-अलग सरकारों ने आज़ाद भारत के ‘आधुनिक सपने’ के तौर पर प्रचारित किया. लेकिन इस बांध के डूब क्षेत्र में आने वाले लगभग 40 हज़ार प्रभावित परिवार आज भी विस्थापन झेल रहे हैं.
इनमें मध्य प्रदेश के डूब प्रभावित कुल 193 गांवों के दो लाख से ज़्यादा लोग भी शामिल हैं. यह कहानी नर्मदा के किनारे बसे उन आदिवासी भारतीय नागरिकों की है जिनकी ज़िंदगी में झांकने पर आपके मन में यह सवाल उठता है कि क्या इनको नागरिक माना भी जाता है?
सतपुड़ा की गोद में बसे अंजनवाडा गांव तक पहुंचने का रास्ता आसान नहीं है. ज़मीन यात्रा ख़त्म करके अब हम ककराना के अंतिम छोर पर खड़े अपनी मोटर बोट का इंतज़ार कर रहे हैं. आगे स्थानीय आदिवासियों और ताड़ी की बड़ी-बड़ी सफ़ेद पीपों से भरी एक पुरानी मोटर बोट पर तीन घंटे की यात्रा पूरी करके हम अंजनवाडा तो पहुंचते हैं लेकिन इस गांव में रहने वाले पहले परिवार तक पहुँचने के लिए हमें अभी एक घंटे की पहाड़ी चढ़ाई चढ़नी है.
चारों ओर से सरदार सरोवर बांध के बैकवाटर्स में डूबे इस अंजनवाडा गांव में रहने वाले आदिवासी हुमा के घर पहुंचने का अनुभव भारतीय लोकतंत्र के हाशिए पर खड़े आख़िरी आदमी तक पहुंचने जैसा था. लेकिन सरदार सरोवर बांध के लगातार बढ़ते पानी की वजह से अब तक तीन बार विस्थापित हो चुके हुमा का घर हमेशा से इतने दुर्गम स्थान पर नहीं था.
अच्छे से जी रहे थे और आत्मनिर्भर थे. लेकिन फिर बांध बना और डूब में हमारा घर और ज़मीन दोनों आ गए. धीरे-धीरे घर डूब गया और ज़मीन भी
दो दशकों से जारी सतत विस्थापन का दर्द 45 वर्षीय हुमा के चेहरे पर उदासी की लकीरों के तौर पर चस्पा हो गया था. अंजनवाडा गांव की पहाड़ी पर अपने घर का रास्ता दिखाते हुए वह हमारे आगे-आगे चल रहे थे. तभी बीच पहाड़ी पर वह अचानक रुक कर खड़े हो गए. नीचे जमा नर्मदा के बैकवॉटर के ओर देखा और बोले, “पहले वहां नदी में हमारा घर हुआ करता था. वहां हमारी पांच एकड़ ज़मीन भी थी.
नदी किनारे की समतल ज़मीन थी इसलिए बहुत उपजाऊ भी थी. हम दो फ़सलें उगाते थे और उसमें हमारे इतने बड़े परिवार से लिए आराम से साल भर के खाने-पीने की व्यवस्था हो जाती थी. ऊपर से थोड़ा बहुत अनाज बच भी जाता था. साग सब्ज़ी भी हम अपनी ख़ुद उगाते थे और साथ में थोड़ी मछली मार लेते थे. अच्छे से जी रहे थे और आत्मनिर्भर थे. लेकिन फिर बांध बना और डूब में हमारा घर और ज़मीन दोनों आ गए. धीरे-धीरे घर डूब गया और ज़मीन भी”.
2000 के दशक की शुरुआत में आई पहली डूब के वक़्त हुमा के परिवार ने सोचा था कि उनकी यातना का अंत हो गया. लेकिन सरकार बांध की उंचाई लगातार बढ़ाती रही. 2014 में सरदार सरोवर की उंचाई 17 मीटर बढ़ाकर 138.68 मीटर करने की घोषणा की गई. इसके बाद 2017 में सरदार सरोवर के 30 गेट बंद कर दिए गए जिससे पानी का स्तर 138 मीटर से ज़्यादा हो गया.
पहाड़ पर ऊपर की ओर धीरे-धीरे खिसकते हुमा के परिवार के दूसरे और तीसरे घर भी बढ़ते पानी की भेंट चढ़ गए. अपने पुराने घरों के निशान दिखाते हुए हुमा कहते हैं, “नदी से उठकर हमने पहला घर पहाड़ पर नीचे की ओर बनाया. फिर डूब बढ़ती रही तो और ऊपर यहां बीच में बनाया. लेकिन फिर जब बांध की उंचाई 17 मीटर बढ़ा दी गई तब हम सीधे पहाड़ के ऊपर चले गए और वहां अपना चौथा घर बनाया”.
सरकार से हमको कोई मुआवज़ा नहीं मिला. घर बनवाने तक का ख़र्चा नहीं मिला नर्मदा के जिस पानी को पार करके आज हमने हुमा के घर तक का रास्ता तय किया है, वहां कभी अंजनवाडा जैसे ही कई गांवों के लोगों के घर, पेड़, बाज़ार और रास्ते थे. लेकिन बांध के पानी का बढ़ता स्तर आज उस पूरी दुनिया को निगल चुका है.
हुमा के परिवार में उनके बूढ़े पिता, पत्नी, दो बेटियां, बेटा, बहु और एक नवजात पोता भी शामिल है. पूरा परिवार अब पहाड़ी की चोटी पर बने एक छोटी से लकड़ी के घर में रहता है. हुमा आगे बताते हैं, “अगर पैसे बचाने के लिए हम बाहरी मज़दूरों की मदद न लें और आपस में परिवार के साथ-साथ गांववालों की मदद से ही ख़ुद घर बनाएं तब भी इस लकड़ी की झोपड़ी को बनाने का ख़र्चा पच्चीस हज़ार तक बैठ जाता है. गारा मिट्टी और सीमेंट को इतना ऊपर चढ़ाना हमारे बस का नहीं था. लेकिन ख़ुद सर पर लकड़ियों के गट्ठे रखकर हमने बड़ी मुश्किल से यह घर बनाया. सरकार से हमको कोई मुआवज़ा नहीं मिला. घर बनवाने तक का ख़र्चा नहीं मिला”.
यूं तो दिग्विजय सिंह से लेकर शिव राज सिंह चौहान तक, मध्य प्रदेश के सभी बड़े नेताओं ने कभी ‘नर्मदा यात्रा’ निकाल कर तो कभी ‘नर्मदा आरती’ के ज़रिए- समय-समय पर अपनी राजनीति को चमकाने के लिए नर्मदा के रूपक का इस्तेमाल किया है. लेकिन इसी नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र में आने वाले अलिराजपुर जिले के कुल 26 गांव आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं और विकास यात्रा में पीछे छूट गए-से नज़र आते हैं.
तीन दशकों से एक अदद पुनर्वास और ‘न्यायोचित’ मुआवज़े की आस लागाए क़ानूनी लड़ाइयों की एक लंबी फ़ेहरिस्त का सामना कर रहे इन परिवारों के लिए आख़िर क्या है 2019 के लोकसभा चुनावों के मायने? निमाड़ के जंगलों में घूमते हुए इस सवाल के जवाब की तलाश ने हमारे सामने भारतीय लोकतंत्र के कुछ अनछुए पहलुओं को उजागर किया.
हुमा के घर की कच्ची रसोई से बाहर आई उनकी छोटी बहन भारकी मेरे हाथ में काली चाय एक पुराना प्याला पकड़ाते हुए बारेला आदिवासी भाषा में कहती हैं, “भरी बरसात में हमें अपने ही घर छोड़ कर ऊपर पहाड़ पर आना पड़ा. सरकार ने कोई मदद नहीं की. पुलिस ने आकर सिर्फ़ इतना कहा की यहां से जाओ वर्ना डंडे पड़ेंगे”.
लेकिन अब जब से हमारे गांव के चारों ओर पानी भर गया है, तब से हम यहीं पहाड़ पर जैसे फ़ंस गए हैं. कहीं आ जा नहीं सकते क्योंकि हर तरफ़ पानी ही पानी है
चाय लेकर मैं भारकी के साथ ही उनकी रसोई के सामने बैठ जाती हूँ. बैंगनी रंग के पारंपरिक कपड़े और आदिवासी आभूषण पहने भारकी अपनी तकलीफ़ में भी मज़बूत और गरिमामय लग रही थीं.
वह आगे जोड़ती हैं, “पहले तो हम जंगल से होते हुए हर जगह पैदल ही चले जाते थे. नर्मदा हमारी थीं और नदी के आसपास फैले सतपुड़ा के जंगल भी हमारे घर-आंगन जैसे थे. लेकिन अब जब से हमारे गांव के चारों ओर पानी भर गया है, तब से हम यहीं पहाड़ पर जैसे फ़ंस गए हैं. कहीं आ जा नहीं सकते क्योंकि हर तरफ़ पानी ही पानी है. हाट-बाज़ार हो, सरकारी राशन हो या कोई बीमारी – हर चीज़ के लिए नाव किराए पर लेकर जाना पड़ता है.
नाव वाले भी मनमाना किराया मांगते हैं. कभी-कभी अगर कोई बच्चा बीमार पड़ जाए तो हमारी मजबूरी को देखते हुए नाव वाले हज़ार रुपया तक मांग लेते हैं. इतना पैसा हम कहाँ से लाएँगे? जब सरकार से हमारे चलने के रास्तों पर पानी भर दिया..हमारे घर डुबो दिए…तो कम-से-कम सरकारी नाव को चलवा ही सकते थे ये लोग. लेकिन वह भी नहीं हुआ. चुनाव के वक़्त सारे नेता सिर्फ़ वोट मांगने आते हैं. सरकारी नाव चलाने और रोड बनाने के वादे भी करते हैं लेकिन बाद में कुछ नहीं होता.”
आगे हमारी मुलाक़ात हुमा और भारकी की ही तरह तीन बाद विस्थापित हो चुके अंजनवाडा गांव के निवासी जामा से होती है. जामा की कहानी बताती है कि डूब क्षेत्र में आने वाले अलिराजपुर के ग्रामीण नागरिकों का मुआवज़े और पुनर्वास के लिए जारी संघर्ष अब तीसरी पीढ़ी तक आ चुका है.
मुआवज़े में ज़मीन के बदले ज़मीन पाने के अपने संघर्ष की शुरुआत के बारे में पूछने पर ख़यालों में गुम जामा कुछ देर तक झोंपड़े की छत को देखते रहते हैं. फिर ख़ुद को संभालते हुए कहते हैं, “हमारे पिताजी ने भी लड़ाई करी, हमने भी और अब हमारे बच्चे भी लड़ रहे हैं. लेकिन बार-बार सही मुआवज़े के लिए अर्ज़ियाँ देने के बाद भी अभी तक सरकार की तरफ़ से हमें संतोषजनक ज़वाब नहीं मिला है. अब भी हमारी ज़मीन पानी में डूबी है और उसके बदले कोई मुआवज़ा नहीं मिला. बार-बार लेटर देने के बाद भी जीआरइ (शिकायत निवारण प्राधिकरण) की तरफ़ से हमें कोई जवाब नहीं मिला है”.
घर और ज़मीन खो चुके जामा के चेहरे पर इस मामले में एक अदद फ़ैसले की तड़प साफ दिखाई दे रही थी. “पहले नदी नीचे थी, उसके बाद में बांध का पानी ऊपर चढ़ आया तो हमें भी अपना घर ऊपर पहाड़ पर ऊपर चढ़ाना पड़ा. जब से याद पड़ता है, तब से हर चार-पांच साल में घर ऊपर चढ़ाते रहे हैं. अब हम बस यही चाहते हैं कि इस मामले का क़ानूनी रूप से निपटारा हो जाए और हमें हमारे हिस्से की ज़मीन दे दी जाए”.
अंजनवाडा गांव से कुल एक डेढ़ घंटे की मोटरबोट यात्रा कर हम भिटाहा गांव पहुंचते हैं. अब तक शाम ढल चुकी है. नदी के किनारे बने एक छोटे से पहाड़ पर अपने परिवार के साथ रहने वाली गोदरी अपने मिट्टी की रसोई में रात के खाने की तैयारी शुरू कर दी है. लेकिन हमें देखते ही वह तुरंत चूल्हे से तरकारी हटाकर चाय का भगोना चढ़ा देती हैं. बहुत मना करने पर भी सतपुड़ा के यह आदिवासी, अपने घर आए रिपोर्टर को भी सस्नेह चाय-पानी देने का आग्रह नहीं छोड़ते.
प्यालों में चाय छानते हुए गोदरी कहती हैं कि वह आज तक उस रात को नहीं भूल पाई हैं जिस रात अचानक उनका घर डूब के पानी में बह गया था. बारेली भाषा में धाराप्रवाह अपना दुख बताते हुए वह कहती हैं, “नुक़सान तो मेरा इतना हो गया है कि मैं आपको क्या बताऊं. उस दिन अचानक बीच रात को डूब का पानी गांव में भरने लगा और देखते ही देखते सारा गांव पानी में डूब गया. रात इतनी हो चुकी थी और सब कुछ इतना अचानक हुआ.
इतने कम वक़्त में घर कैसे बचाती? मेरे कपड़े, समान, घर की दीवारें..सब पानी में बह गया. सरकार ने आज तक मुझे एक पैसे की भी मदद नहीं की. न ज़मीन मिली और न ही घर का मुआवज़ा. अब हालत ये है कि यहां पहाड़ पर दूसरा घर बनाया है. मवेशी तो रोज़ पहाड़ उतरकर नीचे पानी पीने नहीं जा सकते न. इसलिए हमारे साथ साथ उनको पानी पिलाने के लिए भी नर्मदा से खच्चर पर रखकर पानी ऊपर लाना पड़ता है. बड़ी मुश्किल ज़िंदगी हो गयी है यहां”.
गोदरी के घर से बाहर सतपुड़ा के तारों से भरे आकाश के नीचे पैदल चलते हुए हम वापस नदी के किनारे पहुँचते हैं. अभी यहां से बादल गांव तक एक घंटे की मोटरबोट यात्रा बाक़ी है. रात के अंधेरे में टिमटिमाते एक टॉर्च की रोशनी में हम नर्मदा के ऊपर से फिर गुज़र रहे हैं. यूं तो यहां के विस्थापितों और केंद्र समेत (महराष्ट्र, गुजरात और मध्य प्रदेश) राज्य सरकारों के बीच जारी 38 साल पुराने क़ानूनी लड़ाई आज भी देश की अलग अलग अदालतों में जारी है. लेकिन मामले का सबसे बड़ा निर्णय 2017 में तब आया जब सुप्रीम कोर्ट ने 700 प्रभावित परिवारों को साठ लाख रुपए का मुआवज़ा देने की घोषणा की थी. इसी साल मध्य प्रदेश सरकार ने भी प्रभवित परिवारों के लिए नई ज़मीन ख़रीदकर मकान बनवाने के लिए नौ सौ करोड़ रुपए का विशेष राहत पैकेज घोषित किया. लेकिन बादल गांव के गोरखू की ही तरह यहां कई लोग हैं जिन्हें लंबे संघर्ष के बाद जो ज़मीन मिली, वो रहने लायक नहीं थी.
बीस साल पुराने संघर्ष का ताप बादल गांव के गोरखू के चेहरे पर साफ़ दिखाई देता है. बीबीसी से बातचीत के वक्त गोरखू बीमार थे लेकिन फिर भी इस मुद्दे पर अपनी बात रखने के लिए बिस्तर छोड़कर आए और घर के सामने बनी मेड़ पर बैठ गए. अपनी ज़मीन के बारे में बताते हुए वह कहते हैं, “हमारे दादा-परदादा के ज़माने में हमने पहली बार सुना था कि नीचे नदी पर कोई बांध बन रहा है. फिर कभी-कभी बम से चट्टानों को फोड़ने की आवाज़ें आती तो गांव में हम लोग डर जाते. धीरे-धीरे 1997 में हमको पता चला कि हमारे घर और जमीन सब डूब में आएँगे. बहुत लड़ाई लड़ी उसके बाद 2003 में हमारी मुआवज़े की पात्रता घोषित हुई. लेकिन 2003 से आज तक मुआवज़ा तो मिला नहीं. हमने ज़मीन के बदले ज़मीन मांगी थी.”
गोरखू का मानना है कि पैसा कितना भी हो वह एक दिन ख़र्च हो जाता है जबकि ज़मीन पुश्तों के लिए रहती है. “बड़ी मेहनत और कई सालों तक सैकड़ों सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगाने के बाद हमें रावल घाटी में ज़मीन अलॉट हुई. लेकिन वह विवादस्पद थी. वहां के गांव वालों का कहना था कि वह उनकी ज़मीन है. वह भी हमारे ही आदिवासी भाई थे. फिर हम सब ने सरकारी अफ़सरों को बुलाया और लम्बी काग़ज़ी कार्रवाई के बाद मेरा पंजीयन निरस्त किया गया. फिर 2012 में खलघाट में ज़मीन दी गई…और घर का पट्टा कटा मुरघड़ी में. दोनों एक दूसरे से 5 किलोमीटर से भी ज़्यादा दूर. और ज़मीन भी कैसी – जहां बारिश में नाले जाते हैं वहां वो हमारा घर प्लॉट बताते हैं. वहां इतनी ऊँची-ऊँची खाई है…पानी-बिजली-सड़क– किसी चीज़ की कोई सुविधा नहीं. वहां हम कैसे रह सकते हैं. खाई में ज़मीन दे देंगे तो हम वहां कैसे रहेंगे, कैसे मकान बनाएँगे”.
यहां ग़ौरतलब है कि सरकारी पुनर्वास नीति के अनुसार घर बनाने के लिए मिला प्लॉट और खेती की ज़मीन आस-पास होनी चाहिए. साथ ही अलॉट किए गए ज़मीन के टुकड़े के आस-पास विस्थापितों के रहने के लिए बिजली-पानी समेत ज़रूरी मूलभूत इंफ़्रास्टकचर का विकास करके देना भी राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है.
लेकिन तीन दशकों से हाई-कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच जारी दर्जनों मामलों में मोर्चा संभाले नर्मदा किनारे बसने वाले सतपुड़ा के यह आदिवासी आज भी सरकारी उदासीनता के शिकार हैं. इन मुद्दे पर तीन दशकों से लड़ रहे नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता और ख़ुद पीड़ित रहे रहमत इस क़ानूनी दुष्चक्र के बारे में बताते हैं, “काग़ज़ पर लिखी सरकार की पुनर्वास नीति इतनी अच्छी है अगर उसका पालन किया जाता तो किसी भी तरह का विवाद पैदा ही नहीं होता. लेकिन जब पालन नहीं हुआ तब सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद यहां ‘शिकायत निवारण प्राधिकरण’ (जीआरए) का गठन किया गया. 2017 तक क़रीब 14 हज़ार मामले जीआरए में चले गए थे और ज़्यादातर में विस्थापितों के पक्ष में निर्णय आया था लेकिन उन निर्णयों को सरकार ने नहीं माना. जीआरए के फैलसे पर अमल करवा कर अपने हिस्से का मुआवज़ा लेने के लिए फिर कई आदिवासी हाई कोर्ट तक गए. वहां से भी हमारे पक्ष में निर्णय आया. लेकिन कोई अमल करने वाला नहीं. तो एक आदमी को गांव का है, आदिवासी है, ग़रीब है, पढ़ा लिखा नहीं है…वो कहां तक लड़ेगा?”निसरपुर
रहमत की बात की पुष्टि अलिराजपुर से बड़वानी के रास्ते में पड़ने वाले निसरपुर क़स्बे में रहने वाले सुरेश पाटीदार भी करते हैं. सुरेश का पूरा क़स्बा डूब में आ चुका है. निसरपुर के जिस बाज़ार में मेरी मुलाक़ात सुरेश से होती है, इस साल बरसात आते ही वह बाज़ार डूब जाने वाला है.
आँखों में आँसू भरकर अपनी कपड़ों की दुकान दिखाते सुरेश बात करते-करते रोने लग जाते हैं. “दस हज़ार से भी ज़्यादा लोगों की बस्ती है निसरपुर. यह सब डूब रहा है. मेरा तो घर, ज़मीन और दुकान सब डूब में हैं और मुआवज़े के नाम पर कोई सुनवाई नहीं. 2016 में जीआरए ने मेरे पक्ष में आदेश दिया था और कहा था की मुझे दो हेक्टेयर ज़मीन मुआवज़े के तौर पर दी जाए. लेकिन नगर आयुक्त ने कहा कि इस निर्णय का पलान करवाने के लिए तो मुझे हाई कोर्ट जाना पड़ेगा. हाई कोर्ट ने भी मेरे पक्ष में निर्णय दिया लेकिन कोई पालन करवाने वाला नहीं. मैं दो ऑर्डर लेकर बैठा हूँ और मेरे पड़ोसी के पक्ष में तो चार ऑर्डर आ चुके हैं. कोई हमें मुआवजे की ज़मीन फिर भी नहीं देता. कहते हैं मुख्यमंत्री से लिखवा लाओ. अब मुख्यमंत्री इतने बड़ा आदमी, हम ग़रीबों से क्यों मिलेंगे?. घूमते घूमते और दर-दर भटकते हुए थक गए हैं अब हम लोग”.
सुरेश की तकलीफ़ दिल में कील की तरह चुभती है. नर्मदा के किनारे रहने वाले सतपुड़ा के इन निवासियों के चेहरे जैसे पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से पूछ रहे हों कि जब बड़े बांधो को देश के विकास के लिए ज़रूरी बताते हुए उन्होंने नदी किनारे रहने वालों को ‘देश हित में बलिदान’ देने के लिए कहा था – तब क्या यह भी बताया था कि यह बलिदान इन नागरिकों की तीन-तीन पुश्तों को देना पड़ेगा?
नर्मदा के पानी के बीच पहाड़ी नुमा टापुओं पर अटके अलिराजपुर और बड़वानी के इन डूब प्रभावित गाँवों के आदिवासियों के लिए 2019 का लोकसभा चुनाव एक सरकारी क़वायद से ज़्यादा कुछ नहीं. दिल्ली की चुनावी सरगर्मियों से दूर यहां लोग आज भी अगले दिन के रोज़गार की चिंता में डूबे नज़र आते हैं. देश के विकास के लिए अपने घरों और ज़मीनों का बलिदान देने वाले यह भारतीय नागरिक आज नर्मदा घाटी में सिर्फ़ ‘नाम के नागरिकों’ सी ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं.
प्रियंका दुबे,
बीबीसी से साभार